बाल विवाह रोकने की एक छोटी-सी मगर बड़ी जीत!

बाल विवाह रोकने की एक छोटी-सी मगर बड़ी जीत!
अकोला - ये कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है, ये कहानी पूरे देश की है, जहां गरीबी, लाचारी और सामाजिक परंपराओं के नाम पर मासूम बच्चियों की जिंदगी के फैसले उनके हाथ में नहीं होते। लेकिन इस बार, कहानी का अंत ज़रा अलग है।

चान्नी पुलिस थाना क्षेत्र के एक गांव में एक नाबालिग लड़की की शादी होने वाली थी। सब कुछ तय था—घरवालों ने हालातों से समझौता कर लिया था, समाज खामोश था, और सिस्टम…? सिस्टम तो वैसे भी कभी-कभी खबर मिलने के बाद ही हरकत में आता है। मगर इस बार, एक टीम थी जो चुप नहीं बैठी।

‘एक्सेस टू जस्टिस’ परियोजना और आईएसडब्ल्यूएस की टीम को जैसे ही भनक लगी, वे तुरंत लड़की के घर पहुंच गए। वहां की कहानी वही पुरानी थी—पिता का निधन हो चुका था, मां ने दूसरा विवाह कर लिया था, और अब पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी दादी के कंधों पर थी। घर में आर्थिक तंगी थी, कोई सहारा नहीं था, तो शादी ही उन्हें एकमात्र रास्ता नज़र आया।

अब सवाल ये था कि क्या कानून की किताबों में लिखे शब्द दादी के मन में बैठ पाएंगे? टीम ने patiently (धैर्यपूर्वक) समझाया— “18 साल से पहले शादी करना गैरकानूनी है। ये सिर्फ कानून की बात नहीं है, ये लड़की की जिंदगी का सवाल है। उसे भी हक़ है सपने देखने का, पढ़ने का, अपनी ज़िंदगी खुद तय करने का।”

बात समझ में आई। लड़की को बाल कल्याण समिति के सामने पेश किया गया, दादी से लिखित शपथ ली गई कि जब तक लड़की 18 साल की नहीं हो जाती, उसकी शादी नहीं होगी। गांव के सरपंच, ग्राम विकास अधिकारी, पुलिस पाटिल, सब इस वादे के गवाह बने।

ये कोई बहुत बड़ी क्रांति नहीं है, मगर एक बच्ची की जिंदगी अब उसकी मर्जी से चलेगी। इस मुहिम में जिला परियोजना समन्वयक शंकर वाघमारे, समन्वयक सपना गजभिये, विशाल गजभिये, कम्युनिटी सोशल वर्कर पूजा पवार और स्थानीय प्रशासन का अहम योगदान रहा।

इस पूरे मामले में सबसे बड़ी सीख यही है कि कानून तभी ज़िंदा होता है जब कोई उसे ज़मीन पर लागू करने के लिए आगे बढ़ता है। वरना, किताबों में लिखे कानून और दीवारों पर लिखे नारे दोनों एक जैसे हो जाते हैं—दिखते तो हैं, मगर बदलते कुछ नहीं।

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