रमज़ान में इबादत, तालीम और ज़िम्मेदारी – 25वीं तरावीह के साथ एक मिसाल कायम!
इस देश में जब भी मज़हब की बात होती है, तो उसे अक्सर तालीम से काटकर देखा जाता है। लेकिन पुणे कॉलेज के प्रोफेसर, हाफिज़ ग़ुलाम अहमद खान कादरी ने इस सोच को एक बार फिर गलत साबित कर दिया है। रमज़ान का महीना, रोज़े की कैफियत, तरावीह की इबादत और तालीम की ज़िम्मेदारी – इन सबको एक साथ निभाकर उन्होंने एक नई मिसाल पेश की है।
25वीं तरावीह मुकम्मल की, लेकिन क्या सिर्फ इतनी सी बात है? नहीं, इसके साथ-साथ एचएससी बोर्ड के चीफ़ मॉडरेटर के तौर पर परीक्षा पत्रों की समीक्षा भी की और नई शिक्षा नीति की ट्रेनिंग भी जारी रखी। पुणे के मशहूर शैक्षणिक केंद्र यशदा में जब महाराष्ट्र के 9 बोर्डों के विशेषज्ञ शिक्षक जुटे, तो उनमें हाफिज़ ग़ुलाम अहमद भी शामिल थे।
लेकिन आइए पीछे चलते हैं। साल 2001, मनमाड़ की जामा मस्जिद में पहली बार तरावीह पढ़ाने का मौका मिला। दादा की मौजूदगी में वो तरावीह पढ़ाना शायद उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि एक एहसास था। फिर, औरंगाबाद से बीएड किया, मगर तरावीह पढ़ाने की रवायत नहीं छोड़ी। और 2009 में जब पुणे आए, तो 2010 में रोशन मस्जिद में पहली बार कुरान सुना दिया।
रमज़ान की 27वीं रात, जब लोग खुदा से अपने लिए दुआएँ मांग रहे थे, पुणे की रोशन मस्जिद में हाफिज़ ग़ुलाम अहमद के लिए फूल बरसाए जा रहे थे। संगठनों ने सम्मान दिया, लोग मुबारकबाद दे रहे थे। एक तरफ शिक्षा, एक तरफ मज़हब और दोनों को एक साथ लेकर चलने की खूबसूरती।
अब सवाल यह है कि क्या हम भी इस मिसाल से कुछ सीखेंगे, या फिर सिर्फ इसे एक खबर की तरह पढ़कर आगे बढ़ जाएंगे?